एक महान आदमी समाज का सेवक बनने को तैयार रहता हैं-डॉ.बाबा साहेब सिम्बल ऑफ़ नॉलेज़

 

आगरा,संजय साग़र।बाबा साहेब आज़ हमारे बीच तो नहीं लेकिन हमारे दिलों में सदैव जीवित रहेंगे।शुक्रवार 6 दिसंबर को भारतीय सविधान के रचयिता भारतरत्न असहायों के भाग्यविधाता परमपूजनीय डॉ.भीमराव अंबेडकर को देश विदेश सहित दलितों की राजधानी आगरा में उनके अनुयायियों ने महापरिनिर्वाण दिवस पर महान आत्मा को कोटि कोटि प्रणाम व श्रद्धापूर्वक नमन किया।बाबा साहेब की आज ही के दिन यानि 6 दिसंबर को मृत्यु हुई थी।सिम्बल ऑफ नॉलेज ने वर्षों पूर्व में कहा था कि महान आदमी एक आम आदमी से इस तरह से अलग है कि वह समाज का सेवक बनने को तैयार रहता है। ऐसे महान विचारों के धनी थे,बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर,जिन्होंने समाज मे फैली जातपात छुआछूत के ख़िलाफ़ जीवन भर संघष किया।और दलित पिछड़े आदिवाशी व असहायों के हितों को ध्यान में रखते हुए ग्रेजुएट बनों संगठित रहो संघर्ष करो का नारा दिया।बाबा साहेब ने घरेलू व आर्थिक परेशानियों के बाद भी अपना सम्पूर्ण जीवन शिक्षा, ज्ञान और असहाय लोगो को अर्पित किया।विदेशों में अंग्रेज बाबा साहेब को सिम्बल ऑफ़ नॉलेज के नाम से भी जाने जाते हैं।सामाजिक समता और सामाजिक न्याय जैसे सामाजिक परिवर्तन के मुद्दों को प्रमुखता से स्वर देने और परिणाम तक लाने वाले प्रमुख लोगों में डॉ. भीमराव आंबेडकर का नाम अग्रणी है। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन ऊंच-नीच, भेदभाव, छुआछूत के उन्मूलन जैसे कार्यो के लिए समर्पित कर दिया।हमारे वरिष्ठ संवाददाता संजय साग़र द्वारा विभिन माध्यमों व मीडिया संस्थानों से एकत्रित की गई एक ख़ास रिपोर्ट।

 

डॉ.भीमराव अंबेडकर का जन्‍म 14 अप्रैल 1891 को मध्‍य प्रदेश के एक छोटे से गांव महू में हुआ था।हालांकि उनका परिवार मराठी था और मूल रूप से महाराष्‍ट्र के रत्‍नागिरी जिले के आंबडवे गांव से था।उनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल और मां भीमाबाई थीं। अंबेडकर महार जाति के थे।इस जाति के लोगों को समाज में अछूत माना जाता था और उनके साथ भेदभाव किया जाता था।अंबेडकर बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि थे लेकिन जातीय छुआछूत की वजह से उन्‍हें प्रारंभ‍िक श‍िक्षा लेने में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।स्‍कूल में उनका उपनाम उनके गांव के नाम के आधार पर आंबडवेकर ल‍िखवाया गया था. स्‍कूल के एक टीचर को भीमराव से बड़ा लगाव था और उन्‍होंने उनके उपनाम आंबडवेकर को सरल करते हुए उसे अंबेडकर कर दिया।भीमराव अंबेडकर मुंबई की एल्‍फिंस्‍टन रोड पर स्थित गवर्नमेंट स्‍कूल के पहले अछूत छात्र बने।1913 में अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए भीमराव का चयन किया गया। जहां से उन्‍होंने राजनीति विज्ञान में ग्रेजुएशन किया।1916 में उन्‍हें एक शोध के लिए पीएचडी से सम्‍मानित किया गया।अंबेडकर लंदन से अर्थशास्‍त्र में डॉक्‍टरेट करना चाहते थे लेकिन स्‍कॉलरश‍िप खत्‍म हो जाने की वजह से उन्‍हें बीच में ही पढ़ाई छोड़कर वापस भारत आना पड़ा। इसके बाद वे कभी ट्यूटर बने तो कभी कंसल्‍टिंग का काम शुरू किया लेकिन सामाजिक भेदभाव की वजह से उन्‍हें सफलता नहीं मिली,फिर वे मुंबई के सिडनेम कॉलेज में प्रोफेसर नियुक्‍त हो गए।1923 में उन्‍होंने  'The Problem of the Rupee' नाम से अपना शोध पूरा किया और लंदन यूनिवर्सिटी ने उन्‍हें डॉक्‍टर्स ऑफ साइंस की उपाध‍ि दी।1927 में कोलंबंनिया यूनिवर्सिटी ने भी उन्‍हें पीएचडी दी।डॉक्‍टर भीमराव अंबेडकर समाज में दलित वर्ग को समानता दिलाने के जीवन भर संघर्ष करते रहे।उन्‍होंने दलित समुदाय के लिए एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमें कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो। 1932 में ब्रिटिश सरकार ने अंबेडकर की पृथक निर्वाचिका के प्रस्‍ताव को मंजूरी दे दी, लेकिन इसके विरोध में महात्‍मा गांधी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। इसके बाद अंबेडकर ने अपनी मांग वापस ले ली। बदले में दलित समुदाय को सीटों में आरक्षण और मंदिरों में प्रवेश करने का अध‍िकार देने के साथ ही छुआ-छूत खत्‍म करने की बात मान ली गई।अंबेडकर ने 1936 में स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी ने 1937 में केंद्रीय विधानसभा चुनावों मे 15 सीटें जीती।महात्‍मा गांधी दलित समुदाय को हरिजन कहकर बुलाते थे, लेकिन अंबेडकर ने इस बात की खूब आलोचना की। 1941 और 1945 के बीच उन्‍होंने कई विवादित किताबें लिखीं जिनमें 'थॉट्स ऑन पाकिस्‍तान' और 'वॉट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्‍स' भी शामिल हैं।डॉक्‍टर भीमराव अंबेडकर प्रकांड विद्वान थे। तभी तो अपने विवादास्‍पद विचारों और कांग्रेस व महात्‍मा गांधी की आलोचना के बावजूद उन्‍हें स्‍वतंत्र भारत का पहला कानून मंत्री बनाया गया।इतना ही नहीं 29 अगस्‍त 1947 को अंबेडकर को भारत के संविधान मसौदा समिति का अध्‍यक्ष न‍ियुक्‍त क‍िया गया। भारत के संविधान को बनाने में बाबा साहेब का खास योगदान है।

भीमराव अंबेडकर वह नाम है, जिसने हर शोषित वर्ग की लड़ाई लड़ी थी। बाबासाहेब अंबेडकर ने 1952 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन वो हार गए। मार्च 1952 में उन्हें राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और फिर अपनी मृत्यु तक वो इस सदन के सदस्य रहे।

डॉक्‍टर भीमराव अंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया। इस समारोह में उन्‍होंने श्रीलंका के महान बौद्ध भिक्षु महत्थवीर चंद्रमणी से पारंपरिक तरीके से त्रिरत्न और पंचशील को अपनाते हुए बौद्ध धर्म को अपना लिया। अंबेडकर ने 1956 में अपनी आख‍िरी किताब बौद्ध धर्म पर लिखी जिसका नाम था 'द बुद्ध एंड हिज़ धम्‍म'. यह किताब उनकी मृत्‍यु के बाद 1957 में प्रकाश‍ित हुई।अंबेडकर को डायबिटीज था।अपनी आख‍िरी किताब 'द बुद्ध एंड हिज़ धम्‍म' को पूरा करने के तीन दिन बाद 6 दिसंबर 1956 को दिल्‍ली में उनका निधन हो गया। उनका अंतिम संस्‍कार मुंबई में बौद्ध रीति-रिवाज के साथ हुआ।उनके अंतिम संस्‍कार के समय उन्‍हें साक्षी मानकर करीब 10 लाख समर्थकों ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी।

बाबा साहेब का 4 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू में उनका जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल और माता का नाम भीमाबाई था। वह एक ऐसी हिंदू जाति से संबंध रखते थे, जिसे अछूत समझा जाता था। इस कारण उनके साथ समाज में भेदभाव किया जाता था। उनके पिता भारतीय सेना में सेवारत थे। पहले भीमराव का उपनाम सकपाल था, पर उनके पिता ने अपने मूल गांव अंबाडवे के नाम पर उनका उपनाम अंबावडेकर लिखवाया जो बाद में आंबेडकर हो गया।पिता की सेवानिवृत्ति के बाद उनका परिवार महाराष्ट्र के सतारा चला गया। उनकी मां की मृत्यु के बाद उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया और मुंबई जाकर बस गए। यहीं उन्होंने शिक्षा ग्रहण की। वर्ष 1906 में मात्र 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह 9 वर्षीय रमाबाई से कर दिया गया। वर्ष 1908 में उन्होंने बारहवीं पास की। स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने बॉम्बे के एलफिन्स्टन कॉलेज में दाखिला लिया। उन्हें गायकवाड़ राजा सयाजी से 25 रुपये मासिक की स्कॉलरशिप मिलने लगी थी। वर्ष 1912 में उन्होंने राजनीति विज्ञान व अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि ली। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह अमेरिका चले गए।वर्ष 1916 में उन्हें उनके एक शोध के लिए पीएचडी से सम्मानित किया गया। इसके बाद वह लंदन गए, किंतु बीच में ही लौटना पड़ा। आजीविका के लिए इस बीच उन्होंने कई कार्य किए। वह मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्राध्यापक भी रहे। इसके पश्चात एक बार फिर वह इंग्लैंड चले गए। वर्ष 1923 में उन्होंने अपना शोध 'रुपये की समस्याएं' को पूरा किया। उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा 'डॉक्टर ऑफ साइंस' की उपाधि प्रदान की गई। उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। स्वदेश लौटते हुए भीमराव आंबेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके और बॉन विश्वविद्यालय में उन्होंने अर्थशास्त्र का अध्ययन जारी रखा। 1927 में कोलंबिया विश्वविद्यालय ने उन्हें पीएचडी की उपाधि प्रदान की।आंबेडकर को बचपन से ही अस्पृश्यता से जूझना पड़ा। विद्यालय से लेकर नौकरी करने तक उनके साथ भेदभाव होता रहा। इस भेदभाव ने उनके मन को बहुत ठेस पहुंचाई। उन्होंने छूआछूत का समूल नाश करने की ठान ली। उन्होंने कहा कि जनजाति एवं दलित के लिए देश में एक भिन्न चुनाव प्रणाली होनी चाहिए। देशभर में घूम-घूम कर उन्होंने दलितों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई और लोगों को जागरूक किया। उन्होंने एक समाचार-पत्र 'मूकनायक' (लीडर ऑफ साइलेंट) शुरू किया। एक बार उनके भाषण से प्रभावित होकर कोल्हापुर के शासक ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया जिसकी देशभर में चर्चा हुई। इस घटना ने भारतीय राजनीति को एक नया आयाम दिया।वर्ष 1936 में भीमराव आंबेडकर ने स्वतंत्र मजदूर पार्टी की स्थापना की। अगले वर्ष 1937 के केंद्रीय विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने 15 सीटों पर विजय प्राप्त की। उन्होंने इस दल को ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट पार्टी में परिवर्तित कर दिया। वर्ष 1946 में संविधान सभा के चुनाव में वह खड़े तो हुए, किंतु सफलता नहीं मिली। वह रक्षा सलाहकार समिति और वायसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे। वह देश के पहले कानून मंत्री बने। उन्हें संविधान गठन समिति का अध्यक्ष बनाया गया।आंबेडकर समानता पर विशेष बल देते थे। वह कहते थे- अगर देश की अलग-अलग जाति एक दूसरे से अपनी लड़ाई समाप्त नहीं करेंगी तो देश एकजुट कभी नहीं हो सकता। यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्मशास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए। हमारे पास यह आजादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है जो हमारे मौलिक अधिकारों के विरोधी हैं।एक सफल क्रांति के लिए केवल असंतोष का होना ही काफी नहीं है, बल्कि इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी बहुत आवश्यक है। राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है और जो सुधारक समाज की अवज्ञा करता है वह सरकार की अवज्ञा करने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी है। जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते तब तक आपको कानून चाहे जो भी स्वतंत्रता देता है वह आपके किसी काम की नहीं। यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्म-शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए।

बाबासाहेब ने  जीवनर्पयत छूआछूत का विरोध किया। उन्होंने दलित समाज के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए सरहानीय कार्य किए। वह कहते- 'आप स्वयं को अस्पृश्य न मानें अपना घर साफ रखें। घिनौने रीति-रिवाजों को छोड़ देना चाहिए। हमारे पास यह आजादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेद-भाव और अन्य चीजों से भरी हैं जो हमारे मौलिक अधिकारों की विरोधी हैं। राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है जब लोगों के बीच जाति, नस्ल या रंग का अंतर भुलाकर उसमें सामाजिक भ्रातृत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाए।'वह सामाजिक समानता को बहुत महत्व देते थे। वह कहते थे- 'जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते, तब तक आपको कानून चाहे जो भी स्वतंत्रता देता है वह आपके किसी काम की नहीं होती। एक सफल क्रांति के लिए सिर्फ असंतोष का होना ही काफी नहीं, बल्कि इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी जरूरी है। राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है।और जो सुधारक समाज की अवज्ञा करता है वह सरकार की अवज्ञा करने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी है।' वह राजनीति को जनकल्याण का माध्यम मानते थे। वह स्वयं के बारे में कहते थे- 'मैं राजनीति में सुख भोगने नहीं, अपने सभी दबे-कुचले भाइयों को उनके अधिकार दिलाने आया हूं। मेरे नाम की जय-जयकार करने से अच्छा है मेरे बताए हुए रास्ते पर चलें।' वह कहते थे- 'न्याय हमेशा समानता के विचार को पैदा करता है। संविधान मात्र वकीलों का दस्तावेज नहीं यह जीवन का एक माध्यम है। निस्संदेह देश उनके योगदान को कभी भुला नहीं पाएगा।'

आंबेडकर का बचपन अत्यंत संस्कारी एवं धार्मिक माहौल में बीता था। इस वजह से उन्हें श्रेष्ठ संस्कार मिले। वह कहते थे-'मैं एक ऐसे धर्म को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए।' वर्ष 1950 में वह एक बौद्धिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका गए जहां वह बौद्ध धर्म से अत्यधिक प्रभावित हुए। स्वदेश वापसी पर उन्होंने बौद्ध धर्म के बारे में पुस्तक लिखी।

उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। वर्ष 1955 में उन्होंने भारतीय बौद्ध महासभा की स्थापना की। 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने एक आम सभा आयोजित की जिसमें उनके पांच लाख समर्थकों ने बौद्ध धर्म अपनाया। कुछ समय पश्चात छह दिसंबर, 1956 को उनका निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार बौद्ध धर्म की रीति के अनुसार किया गया। वर्ष 1990 में मरणोपरांत उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।कई भाषाओं के ज्ञाता बाबासाहब ने अनेक पुस्तकें भी लिखी हैं।

 

बाबासाहब ने अंग्रेजी में 'वेटिंग फॉर ए वीजा' नाम से अपनी आत्मकथा लिखी। इसमें उन्होंने एक घटना का जिक्र किया है जो आंखें खोलने वाली है। यह घटना काठियावाड़ के एक गांव के एक शिक्षक की थी। गांधी द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'यंग इंडिया' में यह घटना एक पत्र के माध्यम से 12 दिसंबर 1929 को सामने आई। इसमें लेखक ने बताया था कि कैसे उसकी पत्नी की जिसने हाल ही में बच्चे को जन्म दिया था, चिकित्सक के ठीक से उपचार नहीं करने के कारण मृत्यु हो गई।पत्र में लिखा था- 'बच्चा होने के दो दिन बाद मेरी पत्नी बीमार बीमार हो गई। उसकी नब्ज धीमी हो गई और छाती फूलने लगी, जिससे सांस लेने में कष्ट होने लगा और पसलियों में तेज दर्द होने लगा। मैं एक चिकित्सक को बुलाने गया, लेकिन उसने कहा कि वह अछूत के घर नहीं जाएगा और न ही वह बच्चे को देखने के लिए तैयार हुआ। तब मैं वहां से नगर सेठ के दरबार गया और उनसे मदद की भीख मांगी।नगर सेठ ने आश्वासन दिया कि मैं चिकित्सक को दो रुपये दे दूंगा। तब जाकर चिकित्सक आया। लेकिन उसने इस शर्त पर रोगी को देखा कि वह बस्ती के बाहर ही उसे देखेगा। मैं अपनी पत्नी और नवजात शिशु को लेकर बस्ती के बाहर आया। तब चिकित्सक ने अपना थर्मामीटर एक अन्य व्यक्ति को दिया और उसने मुङो दिया और मैंने अपनी पत्नी को। फिर उसी प्रक्रिया में थर्मामीटर वापस किया। यह रात आठ बजे की बात है। थर्मामीटर देखते हुए चिकित्सक ने कहा कि रोगी को निमोनिया हो गया है। उसके बाद चिकित्सक चला गया और दवाइयां भेजीं। मैं बाजार से कुछ लिनसीड खरीद कर ले आया और रोगी को लगाया।बाद में चिकित्सक ने रोगी को देखने से इन्कार कर दिया जबकि उसे इस काम के लिए दो रुपये दिए गए थे। चिकित्सक की अनदेखी से उसकी मत्यु हो गई।'उस शिक्षक और चिकित्सक का नाम नहीं लिखा गया था। शिक्षक ने बदले की कार्यवाही के डर के कारण नाम नहीं दिया, लेकिन तथ्य एकदम सही हैं। उसके लिए किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। शिक्षित होने के बाद भी चिकित्सक ने गंभीर रोगग्रस्त महिला को स्वयं थर्मामीटर लगाने से मना कर दिया। उसके मन में बिल्कुल भी उथल-पुथल नहीं हुई कि वह जिस कार्य से बंधा हुआ है उसके कुछ नियम भी हैं।बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर का जन्म ऐसे समुदाय में हुआ था जिसे उस दिनों अछूत समझा जाता था। उन्होंने यह देखा कि कैसे उनके समाज में लोगों के साथ भेदभाव बरता जाता है। इन चीजों को उन्होंने निकटता से महसूस भी किया जिससे वे खिन्न रहते थे। शायद इस कारण ही अपने आखिरी दिनों में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था। सामाजिक न्याय के मसीहा रहे डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अपना संपूर्ण जीवन ऊंच-नीच, भेदभाव, छुआछूत के उन्मूलन जैसे सामाजिक कार्यो के लिए समर्पित कर दिया।

 

बाबा साहेब अम्बेडकर ने कई ऐसी बातें भी बोली थी जो लोगों के लिए काफी प्रेरणात्मक थी।आइए बाबा साहेब अम्बेडकर के कुछ बेहतरीन कोट्स को अपनों के बीच शेयर करते हैं और उनके योगदान को बता हैं।

1. “एक महान आदमी एक प्रतिष्ठित आदमी से इस तरह से अलग होता है कि वह समाज का नौकर बनने को तैयार रहता है।”

2. “बुद्धि का विकास मानव के अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए।”

3. “जीवन लम्बा होने की बजाये महान होना चाहिए।”

4. “किसी भी कौम का विकास उस कौम की महिलाओं के विकास से मापा जाता हैं |”

5.  “मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ जो स्वतंत्रता, समानता, और भाई-चारा सीखाये।”

6. “एक सुरक्षित सेना एक सुरक्षित सीमा से बेहतर है।”

7. “मेरे नाम की जय-जयकार करने से अच्‍छा है, मेरे बताए हुए रास्‍ते पर चलें।

 

डॉ. भीमराव अंबेडकर की आज शुक्रवार को 63वीं पुण्यतिथि है। बाबा साहेब अंबेडकर ने छह दिसंबर 1956 को अंतिम सांस ली थी।आज के दिन 'परिनिर्वाण दिवस' के रूप में मनाया जाता है। अंबेडकर दलित वर्ग को समानता दिलाने के लिए जीवन भर संघर्ष करते रहे।अंबेडकर का 63वां परिनिर्वाण दिवसअंबेडकर ने आखिरी समय में बौद्ध धर्म अपनाया।भारतीय संविधान के निर्माता, समाज सुधारक डॉ. भीमराव अंबेडकर की आज शुक्रवार को 63वीं पुण्यतिथि है। बाबा साहेब अंबेडकर ने छह दिसंबर 1956 को अंतिम सांस ली थी। आज के दिन 'परिनिर्वाण दिवस' के रूप में मनाया जाता है। अंबेडकर दलित वर्ग को समानता दिलाने के लिए जीवन भर संघर्ष करते रहे।वे दलित समुदाय के लिए एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत करते रहे। देश में डॉ. अंबेडकर की याद में कई कार्यक्रम किए जाते हैं। बसपा से लेकर कांग्रेस, बीजेपी,सपा, रालोद सहित तमाम राजनीतिक दल परिनिर्वाण दिवस के रूप में मनाते हैं।डॉ. अंबेडकर ने सामाजिक छुआ-छूत और जातिवाद के खात्‍मे के लिए काफी आंदोलन किए।उन्‍होंने अपना पूरा जीवन गरीबों, दलितों और समाज के पिछड़े वर्गों के उत्‍थान के लिए न्‍योछावर कर दिया।अंबेडकर ने खुद भी उस छुआछूत, भेदभाव और जातिवाद का सामना किया है, जिसने भारतीय समाज को खोखला बना दिया था।अपनी जाति के कारण उन्हें सामाजिक दुराव का सामना करना पड़ा। प्रतिभाशाली होने के बावजूद स्कूल में उनको अस्पृश्यता के कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था।इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी।अंबेडकर को डायबिटीज के मरीज थे। 6 दिसंबर 1956 को दिल्‍ली में उनका निधन हो गया था।